Saturday 2 July 2011

फ़िल्म क्यों देखते है हम

काहे ना देखें? कोई मनाही है का? क्या आपको हमारे चाचाजी ने भेजा है हमे रोकने के लिये? बचपन मे तो चाचाजी ने भरसक प्रयास किये कि हम बच्चे सिनेमा हाल के आसपास भी ना फ़टकने पायें।जब कभी भी फ़िल्म के लिये जिद करते तो खूब डाँट पड़ती और ज्यादा पंगा लेते तो पिटाई होती।थोड़े दिनो के लिये तो जिद समाप्त होती।अब जहाँ डिमान्ड होती है तो वहाँ सप्लाई अपने आप आ जाती है, ये अर्थशास्त्र का नियम है…आचार्य जी तो यही बोलते थी, बाकी अब अर्थशास्त्री जाने। हाँ तो हम बता रहे थे, कि चाचाजी ने फ़िल्मे देखने पर रोक लगाई थी, स्टोरी सुनने पर थोड़े ही लगाई थी। हमारी बड़ी बहनों को ना जाने कहाँ से ये इन्नोवेटिव आइडिया आ गया कि फ़िल्म की स्टोरी सुनाने के लिये भी पैसे वसूले जा सकते है (जरुर बिल गेट जैसा दिमाग पाया होगा), तो भैया हम काफ़ी दिन तक तो उल्लू बनते रहे, यानि दीदी से स्टोरी सुनते रहे और अपनी जेबखर्च की गाढी कमाई उनके चरणों मे रखते रहे।वो इस पैसे से चूरन कैथा और इमली वगैरहा खरीदती थी।
रही बात स्टोरी की तो सीन बाइ सीन और फ़्रेम बाइ फ़्रेम सुनाई जाती थी, और बीच बीच मे हमारे फ़िजूल के सवालों (जैसे अगर हीरो का बाप मरकर जिन्दा हो गया, तो वो डैडबाडी किसकी थी? ये पेड़ों के पीछे से गाने के बीच मे कपड़े कैसे बदल जाते है, और दो फ़ूलों या कबूतरों के आपस मे चोंच लड़ाने का क्या मतलब होता है वगैरहा) के भी जवाब मिल जाते थे, अक्सर जवाब एक ही होता था “स्टोरी सुनना है कि जाय हम दूसरा काम देखें” अब हम पैसे तो एड्वान्स मे ही दे चुके होते थे, इसलिये मन मारकर निर्माता और निर्देशक को पचास गालियां देते हुए भी स्टोरी पूरी सुनते थे।अब बहनों की मोनोपली के आगे हम और कर भी क्या सकते थे, चाचाजी के गुस्से का तो सभी को पता ही था। लेकिन ज्यादा दिनो तक ऐसा नही चला, हमे भी एक ग्राहक मिल ही गया, वो था सुक्खी, हमने बस करना वो होता था। स्टोरी मे कुछ बद्लाव करने होते थे।सुक्खी बहुत अड़ियल था, बोलता था, सिर्फ़ वही स्टोरी सुनेगा जिसमे सरदार हो, मजबूरन हमे मसाला मूवी मे कभी हीरो तो कभी हिरोइन के बाप को सरदार बनाकर सुक्खी को तड़का मारकर स्टोरी सुना देते और अपने दीदी को दिये पैसे सुक्खी से वसूल लेते। अब क्या करें अपनी गाढी कमाई को ऐसे थोड़े ही जाने देते।और सुक्खी? यकीनन सुक्खी भी आगे ऐसा ही करता होगा।कुल मिलाकर एक अच्छा खासा बिजिनेस माडल था, जिसमे पूरी पूरी इआरपी इम्प्लीमेन्टेड थी। लेकिन सवाल तो वंही खड़ा रहा ना…कि हम फ़िल्मे क्यों देखते थे?
अरे भई मनोरंजन के लिये और क्या? अब भारत मे क्या है मनोरंजन के ज्यादा साधन तो है नही, लोग जब बच्चे पैदा करते करते और उन्हे पालते पालते बोर हो जाते है तो जस्ट फ़ार चेन्ज सिनेमा देख लेते है तो उसमे बुराई क्या है? अब क्या है जनता ज्यादा पढी लिखी तो है नही, इसलिये साहित्यिक चीजों पर ज्यादा जोर नही दिया जाता। इसलिये सलीमा (सिनेमा) देखा जाता है। अब हमने शोध किया तो पाया कि अलग अलग तरह के प्राणी अलग अलग कारणों से फ़िल्मे देखते है।
बऊवा टाइप के लोग: अब बऊवा टाइप के लोग तो बस ये देखने जाते है कि कब हॉट सीन आयेगा।स्टोरी है या नही उससे मतलब नही, भाषा का भी कोई बैरियर नही, बस गरम मसाला होना चाहिये।वो इसलिये सिनेमा देखते है कि हिरोइन और आइटम बम के लटके झटके,लहराव,झुकाव और जाने क्या दिखे। कई कैटेगरी के लोग तो इसी चक्कर मे मलयालम और तमिल सिनेमा भी देखते है, कि शायद अगले सीन मे हिरोइन कपड़े उतारें। कंही पानी वगैरहा दिख जाता है या हीरो की बहन( वो सिर्फ़ इसी काम के लिये होती है) विलेन से सामने आ जाय तो मन बल्ले बल्ले हो जाता है और उम्मीद बंधती है अब शायद मन की मुराद पूरी हो।अब कल्लू पहलवान को ही लें, पूरे पूरे तीस बार “राम तेरी गंगा मैली” देखी, बोलता था, साली(मंदाकिनी….डान भाई माफ़ करना अब ये आपका आइटम है) का कभी तो पल्लू पानी के बहाव मे बहेगा। लेकिन नही…नही बहा…अब पन्द्रह रुपये मे इससे ज्यादा क्या दिखेगा?
जवान लड़के लड़कियां : अगर अकेले गये तो हीरो/हिरोइन के स्टाइल को देखते है,सिगरेट,फ़ैशन और डान्स का नया ट्रेन्ड अगर दूसरे दोस्तों के साथ जाते है तो अपनी हैकड़ी झाड़ते रहते है (“मै तो अमरीका गया था, वहाँ इसी फ़िल्म की शूटिंग हो रही थी” या “इस फ़िल्म का निर्माता तो मेरा चाचा के साले के पड़ोसी का सगी बुआ का लड़का है”) और खुदा ना खास्ता कोई गर्ल फ़्रेन्ड साथ मे है तो तभी फ़िल्म देखते है जब किनारे वाली सीट ना मिले।
फ़ैमिली टाइप के लोग: वो फ़िल्म कहाँ देखते है, बस अगल बगल देखते रहते है कि कंही कोई उनकी माँ बहन को कोई छेड़ तो नही रहा। वो तो बस गानों का इन्तजार करते रहते है ताकि पान सिगरेट पीने बाहर जाय या फ़िर इन्टरवल का जब पापड़,समौसे वगैरहा अरैन्ज कर सकें।
लड़किया(बहुए टाइप) : वो कपड़ों और गहनों के नये डिजाइन देखती है। ताकि ननद,जिठानी और देवरानी से होड़ ले सकें। मैने दो लेडीज को बात करते सुना “बहन! फ़िल्म कैसी थी” जवाब ये : “बेकार फ़िल्म, मुझे तो नही पसन्द आयी, वही पुराने स्टाइल के ब्लाउज के डिजाइन, एक दो गाने थे, उसमे भी कपड़े मेकअप से मैच नही कर रहे थे, कोई नया स्टाइल तो दिखा नही” गोया कि कहानी, स्क्रीनप्ले,एक्टिंग वगैरहा गया तेल लेने।
छुट्टन टाइप के लोग : अपने छुट्टन मिंया तो बालीवुड के सबसे बड़े समीक्षक है, फ़िल्म चलेगी या नही, बाक्स आफ़िस की क्या रिपोर्ट रहेगी, या फ़िल्म कहाँ से मारी हुई है, ये सब इन्हे पता रहता है। सिनेमा तो इनकी जीवनशैली का एक हिस्सा है वो अब इसे चाहकर भी अलग नही कर सकते। भले ही मिर्जा हजार गालियाँ देता रहे।
बुजुर्ग औरते(सास टाइप): ये लोग इमोशन के लिये सिनेमा देखने जाती है। अगर कोई मार्मिक फ़िल्म है तो सबसे ज्यादा इनकी भीड़ होगी। हीरो बचपन मे गुम गया, या बाप मर गया, या घर बार जुआ मे हार गये…ऐसी फ़िल्मे इनको बहुत पसन्द आती है। अगर इमोशन नही…तो मजा नही। एक और कैटेगरी होती है, धार्मिक वाली, जय सन्तोषी माँ टाइप की फ़िल्मे इन्हे बहुत पसन्द आती है। मैने अपनी आंखों से देखा है लोगो ने सोलह सोलह बार फ़िल्मे देखकर अपने व्रत का उद्वयापन किया है।
सुकुल टाइप के लोग: इनको सिनेमा वगैरहा से कुछ लेना देना नही (सैलून/कवि सम्मेलन से तो फ़ुरसत मिले) ये तो बेचारे बच्चे को सिनेमाहाल के बाहर गोदी मे टहलाने के लिये जाते है, अन्दर कोई भी फ़िल्म चल रही हो, बाहर तो बस “लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा…” ही होता रहता है।अब एक से ज्यादा बच्चे हो तो, उनके झगड़े सलटाने मे ही तीन घन्टे निकल जाते है।तब तक श्रीमती जी आराम से सिनेमा का मजा लेती हैं। है कि नही शुकुल….कहो तो बता दें पिछली सिनेमा वाली बात? खैर छोड़ो
बच्चे: बेचारे बच्चे, उनके लिये फ़िल्मे बनती कहाँ है, एक चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसाइटी थी कभी वो भी कभी की भंग हो गयी शायद। सफ़ेद हाथी टाइप की पिक्चरे देखी थी कभी। बच्चों के लिये सिनेमा मे गानों का होना बहुत जरुरी है और मार-धाड़ और जानवरों की कलाकारियां हो तो कहना ही क्या?
कहते है, साहित्य समाज का दर्पण है, शायद कुछ हद तक सही है, लेकिन भारत के सिलसिले मे मै यह कहना चाहूँगा कि सिनेमा ही समाज का दर्पण है। रोजी रोटी की जद्दोजहद और जिन्दगी के सुख दुख के सागर मे गोते लगाने के बाद, एक सिनेमा ही तो लोगों को आसरा देता है और कुछ सपने दिखाता है। जहाँ सपने है वहाँ और जीने की चाहत, बस इसी चाहत मे सिनेमा देखे जाते है। बाकी अगर कोई ये कहता है सिनेमा से लोग शिक्षा लेते है, तो भैया मैने तो किसी को अच्छी शिक्षा लेते नही देखा। हाँ लड़कियों को छेड़ने की, प्रतिशोध,घ्रृणा और षड़यन्त्र की शिक्षा जरुर ली है लोगों ने। मै सिनेमा क्यों देखता हूँ, विदेश मे रहता हूँ ,देसी चीजों को देखने का हक है मेरा, सिर्फ़ बऊवा थोड़े ही देखेगा,हम भी है लाइन में।मनोरंजन का इससे अच्छा और सस्ता(अब कहाँ रहा सस्ता) साधन और कोई तो नही दिखता।फ़िर देसी सिनेमा देखकर अपने वतन की मिट्टी से भी तो जुड़ा रहता हूँ।

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